Thursday, 22 March 2018

सात ठाकुर जो वृंदावन में प्रकट हुए .....

सात ठाकुर जो वृंदावन में प्रकट हुए हैं

1. गोविंददेव जी
कहाँ से मिली : वृंदावन के गौमा टीला से
यहाँ है स्थापित :जयपुर के राजकीय महल में
रूप गोस्वामी को श्री कृष्ण की यह मूर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि.सं.1535 में मिली थी। उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया में इस मूर्ति को स्थापित किया। इसके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंददेव जी की सेवा पूजा संभाली। उन्ही के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंददेव जी का भव्य मंदिर बनवाया और इस मंदिर में गोविंददेव जी 80 साल विराजे। औरंगजेब के शासन काल में बृज पर हुए हमले के समय गोविंद जी को उनके भक्त जयपुर ले गए। तबसे गोविंदजी जयपुर के राजकीय महल मंदिर में विराजमान हैं।

2. मदन मोहन जी
कहाँ से मिली :वृंदावन के कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से
यहाँ है स्थापित : करौली  (राजस्थान ) में
यह मूर्ति अद्वैत प्रभु को वृंदावन के द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी। उन्होंने सेवा पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांग कर सनातन गोस्वामी ने वि.सं 1590 (सन् 1533) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित किया। बाद मे क्रमश: मुलतान के नामी व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहाँ मदन मोहन जी का विशाल मंदिर बनवाया। मुगलिया आक्रमण के समय भक्त इन्हे जयपुर ले गए पर कालांतर मे करौली के राजा गोपाल सिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहन जी की मूर्ति को स्थापित किया। तब से मदनमोहन जी करौली में दर्शन दे रहे हैं।

3. गोपीनाथ जी
कहाँ से मिली : यमुना किनारे वंशीवट से
यहैं है स्थापित : पुरानी बस्ती, जयपुर
श्री कृष्ण की यह मूर्ति संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस प्रतिमा को निधिवन के पास स्थापित कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी। बाद में रायसल राजपूतों ने यहाँ मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इस प्रतिमा को भी जयपुर ले जाया गया। तबसे गोपीनाथ जी वहाँ पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं।

4. जुगलकिशोर जी
कहाँ से मिली : वृंदावन के किशोरवन से
यहाँ है स्थापित : पुराना जुगलकिशोर मंदिर, पन्ना (म .प्र)
भगवान जुगलकिशोर की यह मुर्ति हरिराम व्यास को वि. सं 1620 की माघ शुक्ल एकादशी को वृंदावन के किशोरवन नामक स्थान पर मिली। व्यास जी ने उस प्रतिमा को वही प्रतिष्ठित किया।बाद मे ओरछा के राजा मधुकर शाह ने किशोरवन के पास मंदिर बनवाया। यहाँ भगवान जुगलकिशोर अनेक वर्षो तक विराजे पर मुगलिया हमले के समय उनके भक्त उन्हें ओरछा के पास पन्ना ले गए। ठाकुर आज भी पन्ना के पुराने जुगलकिशोर मंदिर मे दर्शन दे रहे है।

5. राधारमण जी
कहाँ से मिली : नेपाल की गंडकी नदी से
यहाँ है स्थापित : वृंदावन
गोपाल भट्ट गोस्वामी को नेपाल की गंडक नदी मे एक शालिग्राम मिला। वे उसे वृंदावन ले आए और केसीघाट के पास मंदिर मे प्रतिष्ठित कर दिया। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्राम जी तो एसे लगते है मानो कढ़ी में बैंगन पड़े हों। यह सुनकर गोस्वामी जी बहुत दुःखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से राधारमण जी की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गई। यह दिन वि. सं 1599 (सन् 1542) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर मे इनकी प्रतिष्ठापना सन् 1884 मे कि गई।
उल्लेखनीय है कि मुगलिया हमले के बावजूद यही एक मात्र ऐसी प्रतिमा है जो वृंदावन से कहीं बाहर नहीं गई। इसे भक्तों ने वृंदावन में ही छुपाकर रखा।इसकी सबसे विषेश बात यह है कि जन्माष्टमी पर जहाँ दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरो में रात्रि बारह बजे उत्सव होता है, वहीं राधारमण जी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है। मान्यता है कि ठाकुर जी सुकोमल होते हैं इसलिए उन्हें रात्रि में जागना ठीक नहीं।

6. राधावल्लभ जी
कहाँ से मिली : यह प्रतिमा हित हरिवंश जी को दहेज में मिली थी
यहाँ है स्थापित : वृंदावन
भगवान श्रीकृष्ण की यह सुदंर प्रतिशत प्रतिमा हित हरिवंश जी को दहेज मे मिली थी। उनका विवाह देवबंद से वृंदावन आते समय चटथावल गाव में आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण की बेटी से हुआ था। पहले वृंदावन के सेवाकुंज में (वि. सं 1591)और बाद में सुंदरलाल भटनागर द्वारा बनवाया गया (कुछ लोग इसका श्रेय रहीम को देते है ) लाल पत्थर वाले पुराने मंदिर में प्रतिष्ठित हुए।
मुगलिया हमले के समय भक्त इन्हे कामा (राजस्थान ) ले गए थे। वि. सं 1842 में एक बार फिर भक्त इस प्रतिमा को वृंदावन ले आये और यहा नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया। तब से राधावल्लभ जी की प्रतिमा यहीं विराजमान है।

7. बांकेबिहारी जी
कहाँ से मिली : वृंदावन के निधिवन से
यहैं है स्थापित : वृंदावन
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को स्वामी हरिदासजी की आराधना को साकार रूप देने के लिए बांकेबिहारी जी की प्रतिमा निधिवन मे प्रकट हुई। स्वामी जी ने उस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित कर दिया। मुगलिया आक्रमण के समय भक्त इन्हें भरतपुर (राजस्थान ) ले गए। वृंदावन में 'भरतपुर वाला बगीचा' नाम के स्थान पर वि. सं 1921 में मंदिर निर्माण होने पर बांकेबिहारी जी एक बार फिर वृंदावन मे प्रतिष्ठित हुए। तब से बिहारीजी यहीं दर्शन दे रहे है।
बिहारी जी की प्रमुख विषेश बात यह है कि इन की साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर में) मंगला आरती होती है, जबकि अन्य वैष्णव मंदिरों में नित्य सुबह मंगला आरती होने की परंपरा है।

Saturday, 17 March 2018

इन उपायों को कर मिलेगी सुख-समृद्धि, होगा धन लाभ

चैत्र नवरात्रि का होता है विशेष महत्व, जानें

चैत्र नवरात्रि इस बार ये 18 मार्च से शुरू हो रही हैं और ये 25 मार्च तक चलेंगी। गर्मियों की शुरूआत में आने वाले चैत्र नवरात्रि का भी अपना विशेष महत्व है। इस बार चैत्र नवरात्रि 8 दिन की है क्योंकि इस बार सप्तमी और अष्टमी तिथि एक साथ हैं। नवरात्र के द‌िनों में मनुष्य अपनी भौत‌िक, आध्यात्म‌िक, यांत्र‌िक और तांत्र‌िक इच्छाओं को पूर्ण करने की कामना से व्रतोपवास रखता है और ईश्वरीय शक्त‌ि इन इच्छाओं को पूर्ण करने में सहायक होती है। इसल‌िए आध्यात्म‌िक दृष्ट‌ि से नवरात्र का अपना महत्व है।
ज्योत‌िष की दृष्ट‌ि से चैत्र नवरात्र का व‌‌िशेष महत्व है क्योंक‌ि इस नवरात्र के दौरान सूर्य का राश‌ि परिवर्तन होता है। सूर्य 12 राश‌ियों में भ्रमण पूरा करते हैं और फ‌िर से अगला चक्र पूरा करने के ल‌िए पहली राश‌ि मेष में प्रवेश करते हैं। सूर्य और मंगल की राश‌ि मेष दोनों ही अग्न‌ि तत्व वाले हैं इसल‌िए इनके संयोग से गर्मी की शुरुआत होती है। चैत्र नवरात्र से नववर्ष के पंचांग की गणना शुरू होती है। 

इन उपायों को कर मिलेगी सुख-समृद्धि, होगा धन लाभ

1. धन प्राप्ति के लिए आप घर में एक शांत कमरे में उत्तर की दिशा की ओर अपना मुंह करके पीले आसन पर बैठे इसके बाद आप अपने सामने तेल के 9 दीपक जलाएं। ध्यान रहे कि ये साधनाकाल तक जलते रहने चाहिए। इन 9 दीपकों के सामने लाल चावल की एक ढेरी बनाकर उस पर एक श्रीयंत्र रख लें। इस श्रीयंत्र का कुंकुम, फूल, धूप, तथा दीप से पूजन करें। इस प्रयोग से आपको जल्दी ही अचानक धन लाभ होगा।
2. नौकरी के लिए आप सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद सफेद रंग का सूती आसन बिछाकर उस पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठ जाएं। अब अपने ठीक सामने पीला कपड़ा बिछाकर उस पर 108 मनकों वाली स्फटिक की माला रख दें। इस पर केसर व इत्र छिड़क कर माला का पूजन करें। माला को धूप, दीप और अगरबत्ती दिखाकर ऊं ह्लीं वाग्वादिनी भगवती मम कार्य सिद्धि कुरु कुरु फट् स्वाहा मंत्र का 31 बार जाप करें।
3. मनोकामना पूरी करने के लिए आप किसी शिव मंदिर में जाएं। वहां शिवलिंग पर दूध, दही, घी, शहद और शक्कर चढ़ाते हुए उसे अच्छी तरह से स्नान कराएं। इसके बाद शुद्ध जल चढ़ाएं और पूरे मंदिर में झाड़ू लगाकर उसे साफ करें। अब महादेवजी की चंदन, पुष्प एवं धूप, दीप आदि से पूजा-अर्चना करें। इससे आपकी मनोकामना बहुत जल्दी पूर्ण होगी।
4. घर परिवार में समस्या के लिए आप सुबह स्नान आदि कर सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।। मंत्र को पढ़ते हुए 108 बार अग्नि में घी से आहुतियां दें। इससे यह मंत्र सिद्ध हो जाएगा। इससे जीवन भर परिवार में मधुर संबंध बने रहेंगे।

Friday, 16 March 2018

Our Jaipur ....

जयपुर  - जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। 2011 की जनगणना के अनुसार जयपुर भारत का दसवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली ,आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। 
शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं।
जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहासमुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ और २०१२ के बाद ३५ लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातुसंगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा।

इतिहास

सत्रहवीं शताब्दी में जब मुगल अपनी ताकत खोने लगे, तो समूचे भारत में अराजकता सिर उठाने लगी, ऐसे दौर में राजपूताना की आमेर रियासत, एक बडी ताकत के रूप में उभरी.जाहिर है कि महाराजा सवाई जयसिंह को तब मीलों के दायरे में फ़ैली अपनी रियासत संभालने और सुचारु राजकाज संचालन के लिये आमेर छोटा लगने लगा और इस तरह से इस नई राजधानी के रूप में जयपुर की कल्पना की गई। इस शहर की नींव पहले पहल कहां रखी गई, इसके बारे में मतभेद हैं, किंतु कुछ इतिहासकारों के अनुसार तालकटोरा के निकट स्थित शिकार की होदी से इस शहर के निर्माण की शुरुआत हुई। कुछ इसे ब्रह्मपुरी और कुछ आमेर के पास एक स्थान 'यज्ञयूप' स्थल से मानते हैं। पर ये निर्विवाद है संबसे पहले चन्द्रमहल बना और फिर बाज़ार और साथ में तीन चौपड़ें |
सवाई जयसिंह ने यह शहर बसाने से पहले इसकी सुरक्षा की भी काफी चिंता की थी और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही सात मजबूत दरवाजों के साथ किलाबंदी की गई थी। जयसिंह ने हालाँकि मराठों के हमलों की चिंता से अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए चारदीवारी बनवाई थी, लेकिन उन्हें शायद मौजूदा समय की सुरक्षा समस्याओं का भान नहीं था। इतिहास की पुस्तकों में जयपुर के इतिहास के अनुसार यह देश का पहला पूरी योजना से बनाया गया शहर था और स्थापना के समय राजा जयसिंह ने अपनी राजधानी आमेर में बढ़ती आबादी और पानी की समस्या को ध्यान में रखकर ही इसका विकास किया था। नगर के निर्माण का काम १७२७ में शुरू हुआ और प्रमुख स्थानों के बनने में करीब चार साल लगे। यह शहर नौ खंडों में विभाजित किया गया था, जिसमें दो खंडों में राजकीय इमारतें और राजमहलों को बसाया गया था। प्राचीन भारतीय शिल्पशास्त्र के आधार पर निर्मित इस नगर के प्रमुख वास्तुविद थे एक बंगाली ब्राह्मण विद्याधर (चक्रवर्ती)]], जो आमेर दरबार की 'कचहरी-मुस्तफी' में आरम्भ में महज़ एक नायब-दरोगा (लेखा-लिपिक) थे, पर उनकी वास्तुकला में गहरी दिलचस्पी और असाधारण योग्यता से प्रभावित हो कर महाराजा ने उन्हें नयी राजधानी के लिए नए नगर की योजना बनाने का निर्देश दिया।
यह शहर प्रारंभ से ही 'गुलाबी' नगर नहीं था बल्कि अन्य सामान्य नगरों की ही तरह था, लेकिन 1876 में जब वेल्स के राजकुमार आए तो महाराजा रामसिंह (द्वितीय) के आदेश से पूरे शहर को गुलाबी रंग से जादुई आकर्षण प्रदान करने की कोशिश की गई थी। उसी के बाद से यह शहर 'गुलाबी नगरी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सुंदर भवनों के आकर्षक स्थापत्य वाले, दो सौ वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले जयपुर में जलमहल, जंतर-मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला, हवामहल और आमेर का किला राजपूतों के वास्तुशिल्प के बेजोड़ नमूने हैं।

Thursday, 15 March 2018

विश्व धरोहर खगोलीय वेधशाला ........

जयपुर का जन्तर मन्तर सवाई जयसिंह द्वारा १७२४ से १७३४ के बीच निर्मित एक खगोलीय वेधशाला है। यह यूनेस्को के 'विश्व धरोहर सूची' में सम्मिलित है। इस वेधशाला में १४ प्रमुख यन्त्र हैं जो समय मापने, ग्रहण की भविष्यवाणी करने, किसी तारे की गति एवं स्थिति जानने, सौर मण्डल के ग्रहों के दिक्पात जानने आदि में सहायक हैं। इन यन्त्रों को देखने से पता चलता है कि भारत के लोगों को गणित एवं खगोलिकी के जटिल संकल्पनाओं (कॉंसेप्ट्स) का इतना गहन ज्ञान था कि वे इन संकल्पनाओं को एक 'शैक्षणिक वेधशाला' का रूप दे सके ताकि कोई भी उन्हें जान सके और उसका आनन्द ले सके।

जयपुर में पुराने राजमहल 'चन्द्रमहल' से जुडी एक आश्चर्यजनक मध्यकालीन उपलब्धि है- जंतर मंतर! प्राचीन खगोलीय यंत्रों और जटिल गणितीय संरचनाओं के माध्यम से ज्योतिषीय और खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी करने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध इस अप्रतिम वेधशाला का निर्माण जयपुर नगर के संस्थापक आमेर के राजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने 1728 में अपनी निजी देखरेख में शुरू करवाया था, जो सन 1734में पूरा हुआ था। सवाई जयसिंह एक खगोल वैज्ञानिक भी थे, जिनके योगदान और व्यक्तित्व की प्रशंसा जवाहर लाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' ('भारत : एक खोज') में सम्मानपूर्वक की है। सवाई जयसिंह ने इस वेधशाला के निर्माण से पहले विश्व के कई देशों में अपने सांस्कृतिक दूत भेज कर वहां से खगोल-विज्ञान के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथों की पांडुलिपियाँ मंगवाईं थीं और उन्हें अपने पोथीखाने (पुस्तकालय) में संरक्षित कर अपने अध्ययन के लिए उनका अनुवाद भी करवाया था। महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने हिन्दू खगोलशास्त्र में आधार पर देश भर में पांच वेधशालाओं का निर्माण कराया था। ये वेधशालाएं जयपुरदिल्लीउज्जैनबनारस और मथुरा में बनवाई गई। इन वेधशालाओं के निर्माण में उन्होंने उस समय के प्रख्यात खगोशास्त्रियों की मदद ली थी। सबसे पहले महारजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने उज्जैन में सम्राट यन्त्र का निर्माण करवाया, उसके बाद दिल्ली स्थित वेधशाला (जंतर-मंतर) और उसके दस वर्षों बाद जयपुर में जंतर-मंतर का निर्माण करवाया था। देश की सभी पांच वेधशालाओं में जयपुर की वेधशाला सबसे बड़ी है। इस वेधशाला के निर्माण के लिए 1724 में कार्य प्रारम्भ किया गया और 1734 में यह निर्माण कार्य पूरा हुआ। यह बाकी के जंतर मंत्रों से आकार में तो विशाल है ही, शिल्प और यंत्रों की दृष्टि से भी इसका कई मुकाबला नहीं है। सवाई जयसिंह निर्मित पांच वेधशालाओं में आज केवल दिल्ली और जयपुर के जंतर मंतर ही शेष बचे हैं, बाकी काल के गाल में समा गए हैं।
Jantar Mantar, Jaipur


Jaipur Ke Aaradhya ......

भगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्र महल के पूर्व में बने जय निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मुर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जय सिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था।
Govind Devji, Jaipur
According to the legend, the Image of Lord Govind Devji was also called "Bajrakrit"- indicating thereby that it was created by Bajranabh – The Great Grand Son of Lord Krishna. Some 5,000 years back when Shri Bajranabh was around 13 years old, he asked his Grand Mother (daughter-in-law of Lord Krishna) as to how Lord Shri Krishna looked like; Then He made an image as per the description given by her. She however, said that not all but the feet of that image looked like those of Lord Shri Krishna. He made another image, yet she said that the Chest looked like that of Lord Shri Krishna. Thereafter, He made the Third Image and looking at the same she veiled her face as a show of modesty, and remarked that the face of the deity was exactly like that of Lord Sri Krishna.

Tuesday, 13 March 2018

Hindu Nav Varsh (हिन्दू नव वर्ष)

भारतीय नववर्ष की विशेषता   -
ग्रंथो में लिखा है कि जिस दिन सृष्टि का चक्र प्रथम बार विधाता ने प्रवर्तित किया, उस दिन चैत्र शुदी १ रविवार था। हमारे लिए आने वाला संवत्सर २०७५ बहुत ही भाग्यशाली होगा , क़्योंकि इस वर्ष भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रविवार है,   शुदी एवम  ‘शुक्ल पक्ष एक ही  है।
चैत्र के महीने के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि (प्रतिपद या प्रतिपदा) को सृष्टि का आरंभ हुआ था।हमारा नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शरू होता है| इस दिन ग्रह और नक्षत्र मे परिवर्तन होता है | हिन्दी महीने की शुरूआत इसी दिन से होती है |
पेड़-पोधों मे फूल ,मंजर ,कली इसी समय आना शुरू होते है ,  वातावरण मे एक नया उल्लास होता है जो मन को आह्लादित कर देता है | जीवो में धर्म के प्रति आस्था बढ़ जाती है | इसी दिन ब्रह्मा जी  ने सृष्टि का निर्माण किया था | भगवान विष्णु जी का प्रथम अवतार भी इसी दिन हुआ था | नवरात्र की शुरुअात इसी दिन से होती है | जिसमे हमलोग उपवास एवं पवित्र रह कर नव वर्ष की शुरूआत करते है |